इस्लाम के विद्वानों की दृष्टि में जिहाद

1.शेख अब्दुल्ला बिन मुहम्मद बिन हामिद- मक्का की पवित्र मस्जिद के मुखय इमाम : ''प्रशंसा हो अल्लाह के लिए जिसने १) मन से (इरादों और भावनाओं से, २) हाथ (हथियारों) से, ३) वाणी (अल्लाह के लिए भाषणों) से 'अल-जिहाद' (अल्लाह के लिए लड़ने) का हुक्म दिया है तथा जिसने इसे करने वाले को जन्नत में ऊँचे भवनों में स्थान दिया है।''  (दी कॉल टू जिहाद-इन दी होली कुरान, बुखारी, खंड १, प्रीफेस पृ. xxiv)

2. सैयद अबुल' ला मौदूदी''अरबी भाषा के शब्द 'जिहाद-इ-कबीर' के तीन अर्थ हैं : १) इस्लाम के हित के लिए अपना सर्वाधिक प्रयास करना; २) इस काम के लिए अपने संसाधनों को समर्पित कर देना, और ३)  इस्लाम के दुश्मनों के विरुद्ध अपने सभी संसाधनों के साथ हर सम्भव मोर्चों पर लड़ाई करना ताकि ''अल्लाह का कलाम'' ऊँचा हो जाए यानी इस्लाम फैले, इसमें वाणी, कलम, धन, जीवन तथा अन्य सभी उपलब्ध हथियारों से जिहाद करना शामिल समझा जाएगा।'' (दी मीनिंग ऑफ दी कुरान, खं. ८, P. 98)

3. अनवर शेख''जिहाद अरबी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ''प्रयास''। किन्तु इस्लामी दर्शन में इसका आशय है अल्लाह (अरब का देवता) के लिए युद्धरत होना जिससे काफ़िरों परअल्लाह की प्रभुता स्थापित हो जाए और जब तक कि वे अपना पंथ त्याग कर मुसलमान न हो जाएं या अपमानजनक ज़िज़िया नामक कर देकर उनकी अधीनता स्वीकार न कर लें।
जिहाद गैर-ईमान वालों के विरुद्ध एक अन्तहीन युद्ध है जिसें हिन्दू, बौद्ध, अनीश्वरवादी, देववादी, संशयवादी तथा यहूदी और ईसाई सभी शामिल हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा अपराध यही है कि वह अल्लाह और मुहम्मद पर ईमान लाने और अल्लाह कोपूजे जाने के एक मात्र अधिकार को नहीं मानता है। इसीलए एक मुस्लिम देश को किन्हीं भी अन्य गैर-मुस्लिम देशों पर आक्रमण करने और उन्हें दास बना लेने के लिये यह पर्याप्त कारण ळै।'' (इस्लाम : सेक्स एण्ड वायलेंस, पृ. ११२)।
उन्होंने ''दिस इज़ जिहाद'' में लिखा है : ''इस्लाम में जिहाद की अवधारणा को 'अल्लाह के मार्ग में पवित्र युद्ध'' एवं 'गैर-ईमानवालों (गैर मुस्लिमों) के विरुद्ध एक रक्षात्मक संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन दोनों कथनों में किसी में कुछभी सच्चाई नहीं है। इतिहास साफ तौर पर बतलाता है कि यह पूरी तरह से उन गैर-मुस्लिमों के विरुद्ध एक आक्रामक युद्ध है जो कि इस्लामी पंथ को नहीं स्वीकारते हैं और जो कि अपनी इच्छानुसार ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं। लेकिन यह सब अल्लाह को स्वीकार नहीं है जो कि किसी अन्य पंथ के अस्तित्व को नहीं मानता है और बेहद उन्माद के साथ सभी अन्य पंथों को, उनके अनुयायियों सहित, नष्ट करना चाहता है। (पृ. १) पुनः'' ''जिहाद का मतलब है-नर संहार, अंग-विकृतीकरण और विपत्ति, न कि यह किसी प्रकार के नैतिक, सामाजिक अथवा मानव कल्याणकारी सेवा के लिए है, जैसा कि मुस्लिम धार्मिक नेता दावा करते हैं।'' (वही. पृ. ५)।

4. इन्ब वरौक : ''इस्लाम के सर्व सत्तात्मक स्वरूप का सुस्पष्ट दर्शन जिहाद की अवधारण की अपेक्षा और कहीं अधिक साफ़ दिखाई नहीं देता है।यह एक धर्म युद्ध है जिसका अन्तिम उद्‌देश्य समस्त विश्व को जीतना और फिर उसे एक सच्चे पंथ तथा अल्लाह के कानून के हवाले कर देना है। सत्य केवल इस्लाम को ही दिया गया है; इसके बाहर मोक्ष की कोई सम्भावना नहीं है। प्रत्येक ईमान वाले (मुसलमान) का यह पवित्र कर्त्तव्य और आवश्यक धार्मिक कार्य है कि वे समस्त मानव जाति तक इस्लाम को और आवश्यक धार्मिक कार्य है कि वे समस्त मानव जाति तक इस्लाम को पहुंचायें जैसा कि कुरान और हदीसों में सुनिश्चित किया गया है। जिहाद एक दैवी सिद्धान्त है जिसका उद्‌देश्य, विशेषकर इस्लाम का प्रसार करना है। मुसलमानों को अल्लाह के नाम पर प्रयास, युद्ध और हत्या करनी चाहिए।'' (हृाई आई एम नॉट ए मुस्लिम, पृ. २१७)।

5. इमाम सराक्सी- ''जिहाद एक अनिवार्य कार्य है और इसकी अल्लाह ने आज्ञा दी है। जो कोई व्यक्ति (मुसलमान) जिहाद से इन्कार करता है वह काफिर है और जो लोग जिहाद की अनिवार्यता पर संदेह करते हैं, वे पथ भ्रष्ट हो गए हैं।'' (फतूल कादिर, पृ. १९१, खंड ५; जिहाद फिक्जेशन, पृ. २१)

6. साहिबुल इखितयार- ''जिहाद (फरीदा) एक विधिसम्मत दायित्व है। जो इससे इंकार करताहै, वह काफ़िर है।'' (जिहाद फिक्जे़शन, पृ. २१)। 


7. मजीद खुद्‌दूरी- (जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी) : ''जिहाद इस्लामी पंथ को सार्वभौमिक बनाने और साम्राज्यिक विश्व राज्य स्थापित करने का एक साधन है।'' (वॉर एण्ड पीस इन द लॉ ऑफ इस्लाम, पृ. ५१)।


8. फ्रांसीसी विद्वान्‌ अल्फ्रैड मोराबिया : ''आक्रामक व युद्धप्रिय जिहाद, ने जिसे विशेषज्ञों और मज़हब के मर्मज्ञों ने संहिताबद्ध किया है, अकेले तथा सामूहिक दोनों प्रकार से मुस्लिम चेतना को जागृत करना नहीं छोडा है.... .निश्चित तौर पर समकालीन इस्लाम के समर्थक इस मज़हबी फर्ज की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं जो तत्कालीन मानवीय अधिकारों के मानदण्डों के अनुरूप है..... लेकिन लोग उनके इस कथन से आश्वस्त नहीं होते हैं........................अधिकांश मुसलमान मज़हबी कानून से प्रभावित रहते हैं...... जिसकी मुखय अपेक्षा, यह मांग है आशा नहीं, कि संसार में हर जगह अल्लाह की वाणी का बोलबाला हो।'' (डेनियल पाइप्स द्वारा मिलिटेंट इस्लाम रीचिंज़ अमेरिका पृ. २६५)


9. डॉ. मुहम्मद सैयद रमादान अल बूती-ने अपनी किताब, 'ज्यूरिस प्रूडेंस इन मुहम्मद्‌स बायोग्राफी' में लिखा : ''जैसा कि इस्लामी कानून में ज्ञात है-'मज़हबी युद्ध' (इस्लामी जिहाद) बुनियादी तौर पर एक आक्रामक संघर्ष है। हर समय के मुसलमानों का, जब उन्हें आवश्यक सैन्य शक्ति उपलब्ध हो जाती है, यह एक फर्ज़ है। यह वह दौर है जिसके दौरान मज़हबी युद्ध के अर्थ ने अपना अंतिम रूप ग्रहण किया है। इस प्रकार अल्लाह के पैगम्बर ने यह कहा 'मुझे उन लोगों के साथ तब तक लड़ने का हुक्म हुआ है जब तक कि वे अल्लाह पर ईमान नहीं ले आते।...............'' (पृ. १३४)
''अल्लाह के पैगम्बर ने विभिन्न अरबी जनजातियों के पास, जो अरब प्रायद्वीप में फैली हुई थीं, अपने अनुयायी सैनिक भेजे। उन सैनिक अनुयायियों को भेजने का उद्‌देश्य अरब जनजातियों को इस्लाम कबूल करने के लिए समझाना-बुझाना था। यदि वे नहीं मानें तो अनुयायी (मुसलमान) उन्हें मौत के घाट उतार दें। यह जिहरी सन्‌ सात की बात है। भेजी गई टुकड़ियों की संखया १० थी।''..... ''इस्लाम के अनुसार ''मज़हबी युद्ध'' (जिहाद) की संकल्पना में इस बात पर ध्यान नहीं किया गया है कि वह रक्षात्मक अथवा आक्रामक है। इसका लक्ष्य तो अल्लाह की वाणी को बुलंद करना है और इस्लामी समाज की स्थापना करना तथा इस धरती पर जैसे भी हो अल्लाह का साम्राज्य स्थापित करना है। इन सभी के लिए आक्रामक युद्ध माध्यम होगा। इस मामले में यह शीर्षस्थ आदर्श पवित्र युद्ध है और इस पवित्र युद्ध को छेड़ना विधि सम्मत है।'' (पृ. २६३)।

10. बेदावी : (दी लाइट्‌स ऑफ रिवीलेशन, पृ. २५२)-''यहूदियों तािा ईसाइयों के साथ लड़ाई करो क्योंकि उन्होंने अपने मज़हब के उद्‌गम का उल्लंघन किया है और वे सच्चाई के मज़हब (इस्लाम) पर ईमान नहीं लाते हैं जिसने अन्य सभी मज़हबों का खण्डन किया है। उनके साथ अब तक लड़ाई करो जब तक वे समर्पण और विनम्रता से ज़ज़िया अदा नहीं करने लगें।''

11. अमीर ताहिर''इस्लाम के अनुसार सभी वयस्क पुरुषों के लिए, बशर्तें वे विकलांग व अशक्त न हों, यह आवश्यक है कि वे अन्य देशों को जीतने के लिए तैयार हो जाएं ताकि संसार के हर एक देश में इस्लाम का अनुसरण हो।....लेकिन जो इस्लामी मज़हबी युद्ध का अध्ययन करेंगे, वे इस बात का समझेंगे कि इस्लाम पूरे विश्व को क्यों जीतना चाहता है...... जो इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते, वे यह तर्क देते हैं कि इस्लाम युद्ध के खिलाफ़ है। वे जो ऐसा कहते हैं, नासमझ हैं। इस्लाम के अनुसार, ''सभी इंकार करने वाले को जान से मार दो क्योंकि नहीं तो वे आप सबको जान से मार देंगे।'' क्या इसका मतलब है कि मुसलमान तब तक बैठे रहें जब तक इंकार करने वाले उन्हें नष्ट नहीं कर देते। इस्लाम का कहना है-''सभी गैर-मुसलमानों को तलवार से मौत के घाट उतार दो।' क्या इसका मतलब यह है कि तब तक बैठे रहो जब तक गैर-मुसलमान हम पर काबू नहीं पा लेते हैं। इस्लाम का कहना है कि'-अल्लाह की सेवा में उन सभी को जान से मार दो जो आपको जान से मारना चाहते हैं। क्या इसका मतलब यह है कि हमें दुश्मनों के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। इस्लाम का कहना है-जो भी कुछ अच्छाई मोजूद है, उसका श्रेय तलवार और तलवार के भय से है। लोगों को तलवार के भय के बिना आज्ञाकारी नहीं बनायाजा सकता। तलवार जन्नत प्राप्ति की चाबी है और जन्नत के दरवाजे मज़हबी युद्ध करने वालों के लिए ही खुलते हैं। ऐसी कई सौ अन्य हदीसे हैं जिनका उपयोग करके मुसलमानों से कहा जाता है कि वे युद्ध को महत्व दें तथा युद्ध करें। क्या इन सभी का यह मतलब है कि इस्लाम एक ऐसा मज़हब है जो मनुष्य को युद्ध करने से रोकता है ? मैं उन सभी मूख्र लोगों पर थूकता हूँ जो इस प्रकार का दावा करते हैं।'' (होली टेरर पृ. २२६-२२७)।

12. इब्न-हिशाम-अल-सोहेली (अल-रब्द अल-अनाफ,पृत्र ५०-५१)-''अरब प्रायद्वीप में कोई दो मज़हब एक साथ नहीं रह सकते।''। इसीलिए सउदी अरब की सरकार अपने देश में किसी अन्य मज़हब को अपने धार्मिक कृत्य करने की आज्ञा नहीं देती है। वह इस्लाम कितना सहिष्णु और शान्तिपूर्ण मज़हब है।''

13. इब्न खालदुन-(१३३२-१४०६; इस्लाम का महान्‌ इतिहासकार, समाजशास्त्री तथा दार्शनिक)-''मुस्लिम समुदाय में पवित्र युद्ध एक मज़हबी फ़र्ज है क्योंकि इसका उद्‌ेश्य इसलाम को सार्वभौतिक बनाना है और ह व्यक्ति को समझा-बुझाकर अथवा बल प्रयाग से इस्लाम स्वीकार करवाना है। इसीलिए इस्लाम में शाही-सत्ता और खलीफ़ा (धार्मिक सत्ता) को एक साथ रखा गया है ताकि प्रभावी व्यक्ति दोनों को ही उपलब्ध शक्ति एक ही समय दे सके।'' (दी मुकदि्‌दमाह, खं. १, पृ. ४७३)।

14. ए. ए. इंजीनियर (रेशनल अप्रोच टू इस्लाम, पृ. २११) : ''इस्लाम में जिहादकी संकल्पना को मुसलमान तथा गैर-मुसलमान दोनों ही पर्याप्त रूप से नहीं समझ पाए हैं। वास्तव में ''इस्लामी जिहाद'' शब्दों का अनुवाद किसी भी भाषा में नहीं किया जा सकता है। लेकिन कुछ हद तक इसके भाव की व्याखया की जा सकती है। इसलिए किसी मुसलमान द्वारा व्यक्तिगत तौर पर अथवा सामूहिक तौर पर किया गया यह 'प्रयास' जिहाद है जिसमें गैर-मुसलमान देश में इस्लाम की अभिवृद्धि होती है और वह राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक तौरपर मुसलमान समुदाय के किसी व्यक्ति के लिए अथवा सामूहिक आधार पर लाभकर सिद्ध होता हो। इसका मुखय निशाना हमेशा गैर-मुसलमान और उनका देश होता है ताकि किसी भी सम्भव तरीके से इस्लाम के पक्ष में उनका हृदय परिवर्तन किया जा सके। लेकिन इसके संचालन का तरीका, स्थिति, ताकत तथा काय्रकर्ताओं के संसाधनों को देखते हुए अलग-अलग हो सकता है। यह मुखयतया स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों से नियंत्रित होता है।''

15. सैयद कामरान मिर्ज़ा : ''ऐतिहासिक रूप से जिहाद का अर्थ मज़हबी युद्ध है। १४०० वर्षों से मुसलमानों ने सदैव जिहाद का अर्थ इस्लामी मज़हबी युद्ध ही समझा है।.... इस्लाम का इतिहास देखें तो ८० प्रतिशत से अधिक अतिहास मज़हबी युद्धों (जिहाद) से भरा पड़ा है। प्रारम्भिक काल में अरब प्रायद्वीप में इस्लाम का विस्तार केवल मज़हबी युद्ध ही समझा है।.... इस्लाम का इतिहास देखें तो ८० प्रतिशत से अधिक इतिहास मज़हबी युद्धों (जिहाद) से भरा पड़ा है। प्रारम्भिक काल में अरब प्रायद्वीप में इस्लाम का विस्तार केवल मज़हबी युद्ध (जिहाद) से किया गया था।''
''कुरान के अधिकांश आदेशों में स्पष्ट रूप से इस्लाम में जिहाद को भौतिक संघर्ष की संज्ञा दी गई है, तथा इस्लामी तौर से इसे धरती पर अल्लाह की सत्ता स्थापित करने का साधन बताया गया है। इसी प्रकार हदीस और मुहम्मद साहब की जीवनियों से यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिक काल में मुसलमान समुदाय ने कुरान के वचनों का शाब्दिक अर्थ 'धर्म युद्ध' लिया।'' (दी जिहाद जुगरनौट, पृ. ४८)।

16. अब्द-अल-कादिर अस सूफी अद-दर क़ावी ने अपनी किताब 'जिहाद ए ग्राउंड प्लान' में लिखा : ''हम संघर्षरत है और हमारा संघर्ष अभी शुरू हुआ हैं। हमारी पहली विजय विश्व की ऐसी भूमि के रूप में होगी जहाँ पूरी तरह इस्लाम का शासन होगा।...... इस्लाम पूरी धरती पर फैल रहा है। इस्लाम के विस्तार को यूरोप और अमेरिका में कोई रोक नहीं सकता।'' (जोन लाफ़िन, होली वार इस्लाम फाइट्‌स, पृ. २२)।
                                    
                           स्रोत : हिंदु राईटर फोरम
क्रमशः .............

4 टिप्‍पणियां:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen ने कहा…

बाकियों के लिये बड़ी मुश्किल है सरवाइव करना..

अजय सिंह ने कहा…

@भारतीय नागरिक - Indian Citizen

धन्यबाद पुनः पधारने हेतु|
अंधे लोग इसे मानाने को तैया ही नहीं है| ये भी कहेंगे कि ये उनका स्टेटमेंट असली नहीं है | ये तो नकली है|

awyaleek ने कहा…

एक कहावत है जो दूसरे के लिए गड्ढा खोदते हैं वो खुद उसमें गिरते हैं..ये बात इनपर भी लागू होगी.सारे के सारे मुसलमान जो अन्य लोगों के लिए गड्ढा खोद रहे हैं,उसी गड्ढे में सब के सब दफन होकर अल्लाह के पास पहुँच जाएँगे...

dost ने कहा…

Esa nahi he warnaa kya hota.................socho koi bhi baki bach ta 100% galat