इस्लाम के विद्वानों की दृष्टि में जिहाद - 2

17. अयातुल्लाह खुमैनी (१९०३-८९) ''जिहाद, संघर्ष का बहुआयामी रूप है। वास्तव में यह पूर्ण संघर्ष है और यह बीसवीं शताब्दी के फ़ासिस्ट और कम्युनिस्ट नेताओं की संकल्पना से कहीं अधिक है। इसका अर्थ सशस्त्र युद्ध और लड़ाई है; इसका अर्थ आर्थिक तथा राजनीतिक दबाव के जरिए संघर्ष करना भी है जिसका संचालन प्रचार के माध्यम से, गैर-मुसलमानों का इस्लाम में मतान्तरण करके और गैर-मुसलमान समाजों में घुस करके किया जाता है। जिहाद का अर्थ घोर प्रयास करना है और यह विश्वभर में अथक कार्रवाई की अपेक्षा करता है।'' (जोन लाफ़िन, वही, पृ. १५)।
पेरिस में अपने निर्वासन काल के दौरान खुमैनी ने कहा : ''मजहबी युद्ध का मतलब सभी गैर-मुस्लिम प्रदेशों को जीतना है। इस्लामी सरकार के गठन के बाद ऐसे संघर्ष की अच्छी तरह से घोषणा की जा सकी है.........तब हर स्वस्थ वयस्क पुरुष का फर्ज़ होगा कि वह इस विजय-युद्ध में स्वेच्छा से हिस्सा लें। इस विजय युद्ध का अन्तिम उद्‌देश्य धरती के एक छोर से दूसरे छोर तक कुरान के कानून को लागू करना है।''
उन्होंने यह भी कहा : ''जो व्यक्ति मुसलमान समुदाय पर शासन करता है, उसके मन में हमेशा अपनी भलाई की अपेक्षा मुसलमानी समुदाय की भलाई मौजूद होनी चाहिए। इसीलिए इस्लाम ने अनेक लोगों को मौत के घाट उतारा है। इस्लामी मसुदाय के हितों की रक्षा के लिए इस्लाम ने अनेक जनजातियों का इसलिए विनाश किया कि वे भ्रष्टाचार की स्रोत थीं और मुसलमानों के कल्याण के प्रति हानिकारक थीं।'' (जोन लाफ़िन, वही, पृ. २३)।


18. काहिरा के विद्वान शेख ज़ाहरा ने यह घोषणा की : ''जिहाद सैनिकों तथा बड़ी संखया में सैनिक बलों की स्थापना तक सीमित नहीं है। इसके अलग-अलग रूप हैं। इस्लामी देशों से लोगों के एक ऐसा मज़हबी दल उदय होना चाहिए जो पूरी तरह से ईमान से लैस हो और वह इंकार कनेवालों पर हमला करने के लिए कूच करें और उनको तब तक निरंतर उत्पीड़ित करता रहे जब तक उनका आवास स्थान हमेशा के लिए यातनागृह न बन जाए।'' जिहाद कभी भी खत्म नहीं होगा।.....यह क़ियामत के दिन तक चलेगा। लेकिन लोगों के एक दल विशेष के सम्बन्ध में संघर्ष उस हालात में समाप्त हो सकता है, जब इसके उद्‌देश्य पूरे हा जाएंगे। समाप्त होने की शर्त दुश्मनों द्वारा लिखित समझौता करके आत्मसमर्पण अथवा इस्लाम के पक्ष में शांति संधि या युद्ध विराम की स्थायी संधि करना है।'' (जोन लाफिन, वही, पृ. २२-२३)।

19. प्रो. आस्मा याकूब,  (कराची विश्वविद्यालय) : ''जिहाद का अर्थ उसकी मौजूदा अवधारणा के अनुसार संगठित संघर्ष, सुधार अभियान अथवा परिस्थितियों विशेष में रह रहे मुसलमानों का मुसलमानों अथवा गैर-मुसलमानों के गैर-मज़हबी और अन्यायपूर्ण शासनों के खिलाफ प्रतिरोध करना है'' (दी जिहाद फिक्शेसन, पृ. २१७)।

20. शेख मुहम्मद-अस-सलेह-अल-उथेमिन  (दी मुस्लिम विलीफ, पृ. २२): ''हमारी यह सम्पत्ति है कि जो कोई इस्लाम के अलावा वतर्तमान में मौजूद किसी अन्य धर्म जैसे यहूदीमत, ईसाईयत और अन्य (हिन्दू धर्म, बौद्ध धर्म आदि) में विश्वास रखता है, वह गैर-ईमान वाला है। उससे पश्चाताप करने के लिए आग्रह करना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करता है, तो उसकी धर्मत्यागी के समान हत्या कर देनी चाहिए क्यों वह कुरान को नकारा रहा है।''

21. ब्रिगेडियर एस. के. मलिक (कुरानिक कंसेप्ट ऑफ वॉर, पृ. १४२-१४३) : ''युद्ध (जिहाद) के सम्बन्ध में कुरान का मत बिल्कुल अलग है। कुरान के अनुसार युद्ध अल्लाह के लिए छेड़ा जाता है। इसलिए यह प्रारम्भ से अंत तक 'खुदा की वाणी' के द्वारा ही नियंत्रित होता है। युद्ध के सम्बन्ध में कुरानका दर्शन पूरी तरह से कुरान की विचारधारा से जुड़ा हुआ है.... जिहाद, जो कुरान की सम्पूर्ण रणनीति अवधारणा की मांग है कि राष्ट्र की सम्पूर्ण शक्ति तैयर करके लगा दी जाए, तथा सैन्य शक्ति जिहाद का एक घटक है।''

22. काजी हुसेन अहमद  (अध्यक्ष, जमाते इस्लामी पाकिस्तान) ''जिहाद पूजा है'' (जिहाद फिक्सेशन, पृ. २०९)।

23. प्रो. मुहम्मद अयूब, (मिशीगन स्टेट यूनिवर्सिटी) ने लिखा (जिहाद फिक्ेसेशन, पृ. २१२) : ''बहु-मज़हबी तथा बहु-नस्लीय राजनीति के, जो अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के बहुसंखयक सदस्य हैं, वर्तमान प्रसंग में उनका, गैर-मुसलमानों के खिलाफ, स्वशासन के लिए मुस्लिमों के परंपरागत रूप से लोग प्रिय संघष्र के संदर्भ में जिहाद की बात करना दकियानूसी तो है ही, साथ ही घातक भी है। यह विश्व को पुनः कल्पित दो भागों में बाँटता है जैसे दारूल इस्लाम (इस्लामी राज्य) तािा दारुल हरब (युद्ध क्षेत्र) जिसका वर्तमान राजनीतिक सच्चाई से कोई वास्ता नहीं है। हो सकता है कि पहले कभी किसी काल में ऐसा किया गया हो।''

24. जोनाह विन्टर्स (प्रोफेसर, टोरंटो यूनिवर्सिटी, कनाडा) : ''कुरान में जिहाद के मिलने वाले विभिन्न अर्थों को मोटे तौर पर निम्नलिखित श्रेणियों में रखा जा सकता है। पहला-जिहाद एक निष्ठा है जिसे एक व्यक्ति को अन्य सभी व्यक्तियों के समक्ष दिखानी चाहिए। दूसरा-यह गैर-मुसलमानों का विरोध करने का माध्यम है। तीसरा-यह मुसलमान के रूप में अपना दैनिक जीवन व्यतीत करने का एक निश्चित तरीका है। चौथा-यह जन्नत में प्रवेश की एक पक्की अपेक्षा है। पाँचवा-इसे साधारणतः युद्ध करने का एक पर्याय कहा जा सकता है।'' (दी जिहाद जुगरनौट, पृ. ४९)।

25. इरगम मेहमत केनर तथा एमिर फिथिी केनर : ''डंके की चोट पर कहा जाए तो जिहाद का अर्थ उनके (गैर-मुसलमानों के) खिलाफ एक निरन्तर युद्ध है। आतंकवादी हमलों के बाद, इस्लाम-समर्थकों के स्पष्टीकरणों के बावजूद बुनियादी रूप से जिहाद का अर्थ ''व्यक्तिगत मज़हबी निष्ठा'' के लिए संघर्ष से नहीं है। जिहाद राजनीति, युद्ध, और सांस्कृतिक मोर्चों पर एक संघर्ष है। (अनवीलिंग इस्लाम, पृ. १८५)

26. जॉन लाफिन ने ''होली वार इस्लाम फाइट्‌स'' में लिखा : ''जिहाद एक आवेशपर्ूा ढ़ंग से माना जाने वाला लक्ष्य है और यह इस्लाम का सबसे प्रबल हावीपन है। जैसा कि पहले ही स्पष्ट किया जा चुका है, इसका शाब्दिक अर्थ ''अल्लाह के लिए असाधारण अथवा अथक प्रयास करना है।'' क्योंकि यह प्रयास किसी भी स्थिति में युद्ध से अधिक कठिन नहीं है। इसलिए जिहाद का अर्थ मज़हबी युद्ध से लगाया जाने लगा है। इसका उद्‌देश्य इंकार करने वालों को इस्लाम स्वीकार करवाना है। आधुनकि युग में इस पवित्र युद्ध से अन्य तौर-तरीके भी जुड़ गए हैं, लेकिन अल्लाह के नाम पर विजय का मौलिक सिद्धान्त यथावत्‌ बना हुआ है। सक्रियता के प्रति आवेग और इस्लामी प्रभुता के सिद्धान्त के कारण ही, पश्चिमी देशों के ईसाइयों े लिए जिहाद को समझ पाना कठिन हो गया है।''
धार्मिक युद्ध की संकल्पनाओं के नियम सदियों से वैसे के वैसे ही बने हुए हैं। वे अपरिवर्तनीय से हैं क्योंकि उन्हें कुरान में निर्धारित किया गया है, हदीसों (मुहम्मद साहब के पारम्परिक कथन और कार्य) तथा शरीयत (इस्लामी कानून) द्वारा उनका समर्थन किया गया है और फिक्ह (इस्लाम की विधि) द्वारा उनकी पुष्टि की गई है।
इस्लामी कानून की मुखय चार धाराओं के अनुसार जिहाद को छेड़ने के सम्बन्ध में मतभेद हैं। लेकिन यह मतभेद जिहाद की ऊपनी रचना के बारे में हैं, न कि उसके बुनियादी सिद्धान्त के बारे में। तेरह सदियां बीत जाने के बाद भी इस्लाम के कुछ आदेश तथा कायदे अभी भी शक्तिशाली हैं जैसे मज़हबी युद्ध में हिस्सा लेने वालों के लिए जन्नत प्राप्ति का वायदा।'' (पृ. ३९-४०)।
''इस्लामी पंथ से सम्बन्धित जिहाद का मौलिक सिद्धान्त यह है कि सम्प्रभुता लोगों के हाथों में निहित न होकर, अल्लाह में निहित है और इस प्रकार यह बात तर्क सम्मत नब जाती है कि सरकार के विरुद्ध विद्रोह को न केवल सविनय अवज्ञा के रूप में देखा जाता है बल्कि उसे अल्लाह की इच्छा का उल्लंघन भी माना जाता है। इससे भी बढ़कर यह अल्लाह की सुस्पष्ट इच्छा है कि सभी लोग इस्लाम को मानें और जो ऐसा नहीं करते हैं, प्रत्यक्षतः वे अल्लाह के दुश्मन हैं'' (पृ. ४५-४६)

27. प्रो. डेनियल पाइप्स (इन दि पाथ ऑफ गॉड, पृ. ४३-४४) : ''इस्लाम की ओर से छेड़े गए युद्ध को जिहाद का नाम दिया गया है, और आमतौर पर अंग्रेजी भाषा में इसका अनुवाद 'होली वार' (मज़हबी युद्ध) के रूप में किया जाता है। लेकिन 'होली वॉर' से यह आभासा होता है कि सैनिक अपने मन में अल्लाह को संजो कर अपने मज़हब का विस्तार करने हेतु लड़ने जा रहे हैं। यह कुुछ-कुछ मध्यकालीन यूरोपीय धार्मिक योद्धाओं अथवा सुधार सैनिकों जैसा ही है। जिहाद न्यायसंगत युद्ध से कम एक पवित्र युद्ध है जो शरीयत के अनुसार लड़ा जाने वाला मज़हबी युद्ध है। निःसन्देह जिहाद इस्लाम की ओर से है। लेकिन इसकी परिभाषा का बल वैधता पर है, न कि इसकी पवित्रता पर। एक मुसलमान अल्लाह के ध्यान अथवा लूट के खयाल से लड़ाई के लिए जा सकता है; मुखय बात यह है कि उसका व्यवहार शरियत के अनुसार होना चाहिए ताकि उसे लागू करने की सम्भावना बढ़े। यह जरूरी नहीं है कि गैर-मुसलमानों पर हर हमला जिहादी ही हो। ऐसी बहुत सी पाबंदियां हैं जिनका उल्लंघन होने पर लड़ाई शरियत के अनुकूल नहीं रहती। इसलिए वह जिहाद नहीं कहलाती है। उदाहरण के तौर पर, यदि किसी हमले से कोई शपथ टूटती है तो वह मज़हबी युद्ध नहीं कहलाता है। इसके विपरीत जिहाद शरियत को न मानने वाले मुसलमानों के खिलाफ भी छेड़ा जा सकता है, जिनमें मज़हब त्यागने वाले मुस्लिम तथा लुटेरे भी शामिल हैं।
 इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जिहाद इसलिए मज़हबी युद्ध नहीं है क्योंि इसका उद्‌देश्य मज़हब को फैलाना नहीं है। आमतौर पर गैर-मुसलमान यह मानते हैं कि जिहाद का उद्‌देश्य आतंक के द्वारा इस्लामी मजहब का विस्तार करना है; वस्तुतः इसका उद्‌देश्य इस्लामी कानून का विस्तार करना है। इस्लामी कानून के सम्बन्ध में तर्कसंगत बात जिहाद है जिसका इस्लाम के विषय और राजनीतिक सत्ता के सम्बन्ध में विशेष महत्व है। अल्लाह को पाने के लिए मनुष्य को अवश्य ही शरीयत के अनुसार जीवन यापन करना चाहिए क्योंकि शरियत में ऐसी व्यवस्थाएँ हैं जिन्हें सरकार द्वारा निष्पादित किया जा सकता है, राज्य का शासन मुसलमानों के हाथों में होना चाहिए; इसलिए मुसलमानों को देश पर नियन्तण के हाथों में होना चाहिए ; इसलिए मुसलमानों को देश पर नियन्तण करना चाहिए; इस उद्‌देश्य से उनके लिए यह आवश्यक है कि वे युद्ध छेड़ें और इस प्रकार जिहाद की व्यवस्था की गई है। यदि शासन मुसलमानों के हाथों में नहीं है तो शासन की बागडोर काफ़िरों के हाथों में होगी; और काफ़िर शरियत को पवित्र कानून नहीं मानते हैं। गैर-मुसलमान सुगमता के लिए अपने शासन के विरुद्ध मुसलमानों के असन्तोष को कम से कम करने के उद्‌देश्य से इस्लाम के कुछ छोटे-छोटे कायदे-कानून लागू कर सकते हैं।
 लेकिन वे शरियत के सार्वजनिक नियमों को भी लागू करने का प्रयास नहीं करेंगे। यही कारण है कि इस्लाम, गैर-मुसलमानों को सत्ता से बेदखल करना जरूरी और आवश्यकता पड़े, तो बल प्रयोग करके 'ईमान लाने वालों', को सत्ता में लाना, आवश्यक समझता है।
तिहाद, जहाँ 'जारुल हरब' में आक्रामक है, वहीं 'दारुल-इस्लाम' में रक्षात्मक है। इस प्रकार जिहाद के कई रूप हैं-आक्रमण करना, पड़ोसियों को मदद देना, आत्मरक्षा अथवा गुरिल्ला कार्रवाई करना आदि। शासन के साथ-साथ, कबीले और अलग-अलग लड़ाकू भी अपनी ओर से जिहाद छेड़ सकते हैं। मुस्लिमों की सत्ता का विस्तार, उन क्षेत्रों में जहाँ मुस्लिम रहते हैं तथा उन क्षेत्रों में भी जहाँ वे नहीं रहते दोनों में किया जाना चाहिए क्योंकि शरियत के शासन से गैर-मुसलमानों को भी लाभ मिलता है। गैर-मुसलमानों को लाभ इसलिए मिलता है क्योंकि शरियत का शासन उन्हें ऐसे कार्य करने के लिए रोकता है जिन्हें करने के लिए अल्लाह ने मना किया हैं मुसलमानों का यह विश्वास है कि जिहाद तब तक जारी रहना चाहिए जब तक पूरी पृथ्वी पर मुसलमानों का अधिकार न हो जाए और सम्पूर्ण मानवजाति इस्लामी कानून के अधीन न आ जाए।
यह लक्ष्य ''इस्लाम का अथवा तलवार'' के रूप में जिहाद की व्यापक छवि से मेल नहीं खाता है। जिहाद का लक्ष्य इस्लाम में मतान्तरण न होकर मुसलमानों का विजय (राज्य) को आगे बढ़ाना है जिसके परिणामस्वरूप गैर-मुसलमानों को राजनीतिक रूप में दास बनाना है, न कि उनका मजहबी उत्पीड़न है। जिहाद का मुखय लक्ष्य वह नहीं है जिसे कि यूरोप के पुरानत साहितय में प्रायः समझा गया था अर्थात्‌ बल प्रयोग करके इंकार करने वालों का मतान्तरण, अपितु इस्लामी राज्य का वितसार करना और उसकी रक्षा करना है।

28. बेट ये ओर  (डिक्लाइन ऑफ ईस्टर्न क्रिश्चियनिटी अंडर इस्लाम') : ''जिहाद के सिद्धान्त खानाबदोशों की छापामार प्रवृत्तियों में लिया गया हैं मगर उन्हें कुरानक े आदेशों से नरम बनाया गया है। ..... जिहाद का लक्ष्य पैगम्बर मुहम्मद के आदेशानुसार संसार के लोगों को अल्लाह के कानून की अधीनता में लाना है................. क्योंकि जिहाद एक स्थायी युद्ध है, इसमें शान्ति की अवधारणा का बहिष्कार'' किया गया है। लेकिन राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसारा अस्थायी युद्ध विराम का विधान किया गया हैं मज़हबी युद्ध (जिहाद) को इस्लाम के विद्वानों ने मज़हब के स्तम्भों में से एक माना है और उनके मुताबिक सभी मुसलमानों  के लियेयह अनिवार्य है कि वे अपनी-अपनी क्षमता के अनुसार अपने शरीर, सम्पत्ति अथवा लेखन से इसमें सहयोग करें।'' (पृ. ३९-४०)
''.... जिहाद का अनुवाद आमतौर पर 'पवित्र युद्ध' के रूप में किया जाता है। (यह शब्द संतोषजनक नहीं है)। इससे दो बातों का संकेत होता है : पहला, यह युद्ध एक उग्र मज़हबी भावना से प्रेरित है और दूसरा, इसका मुखय लक्ष्य भूमि जीतना न होकर लोगों का इस्लामीकरण ळै।'' (पृ. १८)।

29. जेक्यूस एलूल : ''इस्लाम में, यद्यपि जिहाद एक मज़हबी फर्ज है, इसकी गणना 'ईमानलाने वालों' के कर्त्तव्यों में होती है और उन्हें इसे अवश्य निभाना है; यह इस्लाम के विस्तार का सामान्य रास्ता है और कुरान में जगह-जगह इसका वर्णन आता है। इसीलिए 'ईमान लाने वाला' इस मज़हबी संदेश का खण्डन नहीं करता। इसके बिल्कुल विपरीत जिहाद वह रास्ता है जिसे वह सबसे अच्छी तरह अपनाता हैं सावधानी से लिखित तथा स्पष्ट रूप से विश्लेषित तथ्यों से यह साफ़ तौर पर स्पष्ट है कि जिहाद एक आध्यात्मिक युद्ध न होकर जीत के लिए एक वास्तविक सैन्य युद्ध है। यह 'मौलिक किताब' तथा 'ईमानलोन वालों' के व्यावहारिक प्रयासों कें बीच एक समझौते को व्यक्त करता है।'' इसके साथ-साथ ''चूंकि यह केवल बाह्‌य युद्ध नहीं है, इसलिए यह मुस्लिम संसार में भी छिड़ सकता है-और मुसलमासनों के बीच अनेक युद्ध हुए हैं लेकिन उनकी विशेषताएं सदैव एक जैसी रहीं हैं।''
''इसलिए, दूसरा महत्वपूर्ण विशिष्ट लक्षण यह है कि जिहाद संस्थागत क्रिया है, न कि एक घटना अर्थात्‌ यह मुसलमानी संसार के सामान्य कार्यकलाप का एक अंग है। इसके दो कारण हैं : पहला, युद्ध से उसकी संस्थाओं की स्थापना होती है जो कि उसका परिणाम हैं। निः संदेह, सभी युद्धों से मात्र संस्थागत परवित्रन होते हैं, इस तथ्य से कि समजा में अब विजेतागण और दूसरे विजित हैं; लेकिन यहाँ हमारे सामने एक अलग ही स्थिति पैदा हो जाती है। विजित लोगों की हैसियत ही बदल जाती है (वे धिम्मी हो जाते हैं) और देश के पुराने कानून को फेंक कर उन पर शरियत लागू कर दी जाती हे। अतः विजित क्षेत्रों के केवल स्वामी ही नहीं बदलते बल्कि उन्हें बाध्यकारी सामूहिक (मज़हबी) विचारधारा के अन्तरगत लाया जाता है और धिम्मी स्थिति के अपवाद सहित उन पर परिपक्व प्रशासनिक तंत्र का नियंत्रण होता है।
अंततः इस परिप्रेक्ष्य में जिहाद इस अर्थ में संस्थागत है कि यह इस्लामी विश्व के आर्ािक जीवन में व्यपक रूप से उस तरह से सहभागी होता है जैसे धिम्मीपन करता है जिसमें उसके आर्थिक जीन की एक खास संकल्पना छिपी होती है।
इस बात को समझना सबसे अधिक महत्वपूर्ण है कि जिहाद अपने आप में एक संस्था है; अर्थात् यह मुस्लिम समाज का एक मूलभूत अंग है। मज़हबी फ़र्ज के रूप में यह मज़हबी यात्राओं आदि की तरह, मज़हबी संगठन के अनुकूल है। तथापि यह वह अनिवार्य तत्व नहीं है जो कि इस्लाम के मज़हबी चिंतन से विश्व के विभाजन से उत्पन्न हो। विश्व का विभाजन दो भागों में किया गया है; दारूल-इस्लाम तथा दारूल हरबा दूसरे शब्दों में 'इस्लामी क्षेत्र' तथा 'युद्ध क्षेत्र''विश्व अब राष्ट्रों, लोगों, एवं कबीलों में विभाजित नहीं रह गया है, अपितु वे सभी ऐसे युद्ध के विश्व में हैं जहाँ बाहरी विश्व के साथ युद्ध का ही एक मात्र सम्भव सम्बन्ध ळै। समस्त पृथ्वी अल्लाह की है और इसके स्वयं निवासियों को यह सच्चाई अवश्य माननी चाहिए। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए केवल एक ही तरीका है-वह है युद्ध। युद्ध तब स्पष्ट रूप से एक संस्था है जो कि केवल प्रांसगिक अथवा आकस्मिक संस्था नहीं है बलिक् इस संसार की रचना, चिंतन और ंसगठन का एक घटक अंग है। इस युद्ध के विश्व के साथ शांति असम्भव है। निः सन्देह, कभी-कभी युद्ध विराम करना आवश्यक हो जाता है; ऐसी परिस्थितियाँ भी हैं जिनमें युद्ध न छेड़ना बेहतर होता है। कुरान में इसकी व्यवस्था है। लेकिन इससे कुछ भी नहीं बदलता-युद्ध एक संस्था बनी रहती है, जिसका अभिप्राय यह है कि परिस्थितियों के अनुकूल होते ही इसे शुरू हो जाना चाहिए।'' (प्राक्थन, डिक्लाइन ऑफ ईस्टर्न क्रिश्चियनिटी अंडर इस्लाम, पृ. १९-२०)।

30. रूडोल्फ पीटर, (इस्लाम कानून के प्रोफेसर, युनिवर्सिटी ऑफ एम्सटरडम) : ''जिहाद के सिद्धान्त का मर्म यह है कि सम्पूर्ण इस्लामी समुदाय (उम्मा) पर शासन करने वाला मात्र 'एक इस्लामी राज्य' है। उम्मा का यह फर्ज़ है कि वह इस राजय का विस्तार करे ताकि उसके शासन के अधीन अधिक से अधिक लोगों को लाया जा सकें इसका अंतिम लक्ष्य इस राज्य की सीमाओं का इतना विसतार करना है ताकि पूरी पृथ्वी पर इस्लाम का राज्य स्थापित हो जाए और अन्य पंथों को मिटा दिया जाए।'' (पृ. ३)।
''जिहाद के सिद्धान्त का सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह है कि यह मुसलमानों को इस बात के लिए संगठित तथा प्रेरित करता है कि वे 'इंकार करने वालों' के विरुद्ध छेड़े गए युद्ध में भाग लें क्योंकि इसे मज़हबी फर्ज़ समझा जाता है। यह प्रेरणा इस ज़बरदस्त सोच पर आधारित है कि युद्ध के मैदान में मारे जाने वाले लोग शहीद, (या शुहदा) कहलाएंगे तथा वे सीधे जन्नत में जाएंगे। 'इंकार करने वालों' के विरुद्ध लड़े जाने वाले युद्धों के दौरान धार्मिक शिक्षाएँ प्रसारित-प्रचारित की जाती हैं, जिनमें कुरान की आयतें तथा हदीस होती हैं। कुरान की इन आयतों तथा इन हदीसों में जिहाद को छेड़ने के गुणों, प्रलोभनों व लाभों का वर्णन होता हैं उनमें युद्ध में मारे जाने वाले लोगों को मृत्यु के बाद मिलने वाले इनाम (जन्नत) का भी भरपूर उल्लेख होता है।'' (जिहाद इन क्लासिकल एण्ड मॉडर्न इस्लाम, पृ. ५)।


31. बनार्ड ल्युइस : ''अधिकतर विद्वानों, न्यायविदों तथा हदीस-विशेषज्ञों ने जिहाद के कर्त्तव्य को सैनिक अर्थ में ही लिया है।'' (पौलिटिकल लैंग्वेज़ ऑफ़ इस्लाम, पृ. ७२)।

32. डॉ. के. एस. लाल  (इस्लाम के विखयात इतिहासकार) : ''कुरान अन्य पंथों के अस्तित्व और उनके मज़हबी रीति-रिवाजों के बने रहने की आज्ञा नहीं देता है। कुरान की ६३२६ आयतों में से ३९०० आयतें प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से 'काफ़िरों', 'मुशरिकों', 'मुनकिरों', 'मुनाफिकों' अथवा अल्लाह एवं उसके पैगम्बर पर 'ईमान न लाने वालों' से सम्बन्धित हैं। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि ये ३९०० आयतें दो श्रेणियों के अन्तर्गत आतीं हैं। पहली श्रेणी की आयतें उन मुसलमानों से सम्बन्धित हैं जिन्हें उनके 'ईमान लाने' के लिए इस संसार में तथा इस संसार के बाद पुरस्कृत किया जाएगा, और दूसरी र्श्रेणी की आयतें उन 'काफ़िरों' तथा 'इंकार करने वालों' से सम्बन्धित हैं जिन्हें इस संसार में दण्ड दिया जाना है और जो मृत्यु के बाद निश्चित रूप से जहन्नम में जाएंगे।''
''कुरान सम्पूर्ण मानवजाति के लिए भाईचारे का ग्रंथ न होकर मानवजाति के विरुद्ध एक युद्ध की नियम पुस्तिका (मैनुअल) जैसी है। अन्य पंथों के अनुयायियों के विरुद्ध, जिहाद अथवा स्थायी युद्ध, कुरान का आदेश है और यही युग का आदेश है। इस्लाम अन्य पंथों के अनुयायिों के खिलाफ़ जिहाद अथवा लगातार युद्ध की सिफ़ारिश करता है ताकि उन्हें पकड़ लिया जाए, उनके सिर काट दि जाएं और उन्हें जहन्नम की आग में जलाया जा सके। इससे इस्लाम कट्‌टारवादी तथा आतंकवादी मज़हब बन जाता है जैसा कि उसका उत्पत्ति से लेकर अब तक यही रूप रहा है। (थ्यौरी एण्ड प्रेक्टिस ऑफ मुस्लिम स्टेट इन इंडिया, पृत्र ५-६)
कुरान, हदीसों, इस्लामी कानूनों एवं इस्लाम के विद्वानों के ऊपर कहे गए कथनों से पाठकों को सुस्पष्ट हो गया होगा कि जिहाद का मुखय अर्थ गैर-मुसलमानों को इस्लाम में धर्मान्तरित करना और उनके सभी देशों को अल्लाह के कानून-शरियत के अधीन लाना है चाहे इसके लिये सशस्त्र युद्ध ही क्यों न करना पड़। फिर भी कुछ मुसलमान इस्लाम को शान्ति का मज़हब कहते हैं। मगर उनके इस कथन में भी कुछ सच्चाई हैं क्योंकि जिहाद के दो चेहरे हैं : एक शान्ति का, दूसरा खुनी युद्ध का।


                                                   स्रोत : हिंदु राईटर फोरम












इस्लाम के विद्वानों की दृष्टि में जिहाद

1.शेख अब्दुल्ला बिन मुहम्मद बिन हामिद- मक्का की पवित्र मस्जिद के मुखय इमाम : ''प्रशंसा हो अल्लाह के लिए जिसने १) मन से (इरादों और भावनाओं से, २) हाथ (हथियारों) से, ३) वाणी (अल्लाह के लिए भाषणों) से 'अल-जिहाद' (अल्लाह के लिए लड़ने) का हुक्म दिया है तथा जिसने इसे करने वाले को जन्नत में ऊँचे भवनों में स्थान दिया है।''  (दी कॉल टू जिहाद-इन दी होली कुरान, बुखारी, खंड १, प्रीफेस पृ. xxiv)

2. सैयद अबुल' ला मौदूदी''अरबी भाषा के शब्द 'जिहाद-इ-कबीर' के तीन अर्थ हैं : १) इस्लाम के हित के लिए अपना सर्वाधिक प्रयास करना; २) इस काम के लिए अपने संसाधनों को समर्पित कर देना, और ३)  इस्लाम के दुश्मनों के विरुद्ध अपने सभी संसाधनों के साथ हर सम्भव मोर्चों पर लड़ाई करना ताकि ''अल्लाह का कलाम'' ऊँचा हो जाए यानी इस्लाम फैले, इसमें वाणी, कलम, धन, जीवन तथा अन्य सभी उपलब्ध हथियारों से जिहाद करना शामिल समझा जाएगा।'' (दी मीनिंग ऑफ दी कुरान, खं. ८, P. 98)

3. अनवर शेख''जिहाद अरबी भाषा का शब्द है जिसका शाब्दिक अर्थ होता है ''प्रयास''। किन्तु इस्लामी दर्शन में इसका आशय है अल्लाह (अरब का देवता) के लिए युद्धरत होना जिससे काफ़िरों परअल्लाह की प्रभुता स्थापित हो जाए और जब तक कि वे अपना पंथ त्याग कर मुसलमान न हो जाएं या अपमानजनक ज़िज़िया नामक कर देकर उनकी अधीनता स्वीकार न कर लें।
जिहाद गैर-ईमान वालों के विरुद्ध एक अन्तहीन युद्ध है जिसें हिन्दू, बौद्ध, अनीश्वरवादी, देववादी, संशयवादी तथा यहूदी और ईसाई सभी शामिल हैं। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा अपराध यही है कि वह अल्लाह और मुहम्मद पर ईमान लाने और अल्लाह कोपूजे जाने के एक मात्र अधिकार को नहीं मानता है। इसीलए एक मुस्लिम देश को किन्हीं भी अन्य गैर-मुस्लिम देशों पर आक्रमण करने और उन्हें दास बना लेने के लिये यह पर्याप्त कारण ळै।'' (इस्लाम : सेक्स एण्ड वायलेंस, पृ. ११२)।
उन्होंने ''दिस इज़ जिहाद'' में लिखा है : ''इस्लाम में जिहाद की अवधारणा को 'अल्लाह के मार्ग में पवित्र युद्ध'' एवं 'गैर-ईमानवालों (गैर मुस्लिमों) के विरुद्ध एक रक्षात्मक संघर्ष के रूप में प्रस्तुत किया गया है। इन दोनों कथनों में किसी में कुछभी सच्चाई नहीं है। इतिहास साफ तौर पर बतलाता है कि यह पूरी तरह से उन गैर-मुस्लिमों के विरुद्ध एक आक्रामक युद्ध है जो कि इस्लामी पंथ को नहीं स्वीकारते हैं और जो कि अपनी इच्छानुसार ईश्वर की पूजा करना चाहते हैं। लेकिन यह सब अल्लाह को स्वीकार नहीं है जो कि किसी अन्य पंथ के अस्तित्व को नहीं मानता है और बेहद उन्माद के साथ सभी अन्य पंथों को, उनके अनुयायियों सहित, नष्ट करना चाहता है। (पृ. १) पुनः'' ''जिहाद का मतलब है-नर संहार, अंग-विकृतीकरण और विपत्ति, न कि यह किसी प्रकार के नैतिक, सामाजिक अथवा मानव कल्याणकारी सेवा के लिए है, जैसा कि मुस्लिम धार्मिक नेता दावा करते हैं।'' (वही. पृ. ५)।

4. इन्ब वरौक : ''इस्लाम के सर्व सत्तात्मक स्वरूप का सुस्पष्ट दर्शन जिहाद की अवधारण की अपेक्षा और कहीं अधिक साफ़ दिखाई नहीं देता है।यह एक धर्म युद्ध है जिसका अन्तिम उद्‌देश्य समस्त विश्व को जीतना और फिर उसे एक सच्चे पंथ तथा अल्लाह के कानून के हवाले कर देना है। सत्य केवल इस्लाम को ही दिया गया है; इसके बाहर मोक्ष की कोई सम्भावना नहीं है। प्रत्येक ईमान वाले (मुसलमान) का यह पवित्र कर्त्तव्य और आवश्यक धार्मिक कार्य है कि वे समस्त मानव जाति तक इस्लाम को और आवश्यक धार्मिक कार्य है कि वे समस्त मानव जाति तक इस्लाम को पहुंचायें जैसा कि कुरान और हदीसों में सुनिश्चित किया गया है। जिहाद एक दैवी सिद्धान्त है जिसका उद्‌देश्य, विशेषकर इस्लाम का प्रसार करना है। मुसलमानों को अल्लाह के नाम पर प्रयास, युद्ध और हत्या करनी चाहिए।'' (हृाई आई एम नॉट ए मुस्लिम, पृ. २१७)।

5. इमाम सराक्सी- ''जिहाद एक अनिवार्य कार्य है और इसकी अल्लाह ने आज्ञा दी है। जो कोई व्यक्ति (मुसलमान) जिहाद से इन्कार करता है वह काफिर है और जो लोग जिहाद की अनिवार्यता पर संदेह करते हैं, वे पथ भ्रष्ट हो गए हैं।'' (फतूल कादिर, पृ. १९१, खंड ५; जिहाद फिक्जेशन, पृ. २१)

6. साहिबुल इखितयार- ''जिहाद (फरीदा) एक विधिसम्मत दायित्व है। जो इससे इंकार करताहै, वह काफ़िर है।'' (जिहाद फिक्जे़शन, पृ. २१)। 


7. मजीद खुद्‌दूरी- (जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी) : ''जिहाद इस्लामी पंथ को सार्वभौमिक बनाने और साम्राज्यिक विश्व राज्य स्थापित करने का एक साधन है।'' (वॉर एण्ड पीस इन द लॉ ऑफ इस्लाम, पृ. ५१)।


8. फ्रांसीसी विद्वान्‌ अल्फ्रैड मोराबिया : ''आक्रामक व युद्धप्रिय जिहाद, ने जिसे विशेषज्ञों और मज़हब के मर्मज्ञों ने संहिताबद्ध किया है, अकेले तथा सामूहिक दोनों प्रकार से मुस्लिम चेतना को जागृत करना नहीं छोडा है.... .निश्चित तौर पर समकालीन इस्लाम के समर्थक इस मज़हबी फर्ज की एक ऐसी तस्वीर प्रस्तुत करते हैं जो तत्कालीन मानवीय अधिकारों के मानदण्डों के अनुरूप है..... लेकिन लोग उनके इस कथन से आश्वस्त नहीं होते हैं........................अधिकांश मुसलमान मज़हबी कानून से प्रभावित रहते हैं...... जिसकी मुखय अपेक्षा, यह मांग है आशा नहीं, कि संसार में हर जगह अल्लाह की वाणी का बोलबाला हो।'' (डेनियल पाइप्स द्वारा मिलिटेंट इस्लाम रीचिंज़ अमेरिका पृ. २६५)


9. डॉ. मुहम्मद सैयद रमादान अल बूती-ने अपनी किताब, 'ज्यूरिस प्रूडेंस इन मुहम्मद्‌स बायोग्राफी' में लिखा : ''जैसा कि इस्लामी कानून में ज्ञात है-'मज़हबी युद्ध' (इस्लामी जिहाद) बुनियादी तौर पर एक आक्रामक संघर्ष है। हर समय के मुसलमानों का, जब उन्हें आवश्यक सैन्य शक्ति उपलब्ध हो जाती है, यह एक फर्ज़ है। यह वह दौर है जिसके दौरान मज़हबी युद्ध के अर्थ ने अपना अंतिम रूप ग्रहण किया है। इस प्रकार अल्लाह के पैगम्बर ने यह कहा 'मुझे उन लोगों के साथ तब तक लड़ने का हुक्म हुआ है जब तक कि वे अल्लाह पर ईमान नहीं ले आते।...............'' (पृ. १३४)
''अल्लाह के पैगम्बर ने विभिन्न अरबी जनजातियों के पास, जो अरब प्रायद्वीप में फैली हुई थीं, अपने अनुयायी सैनिक भेजे। उन सैनिक अनुयायियों को भेजने का उद्‌देश्य अरब जनजातियों को इस्लाम कबूल करने के लिए समझाना-बुझाना था। यदि वे नहीं मानें तो अनुयायी (मुसलमान) उन्हें मौत के घाट उतार दें। यह जिहरी सन्‌ सात की बात है। भेजी गई टुकड़ियों की संखया १० थी।''..... ''इस्लाम के अनुसार ''मज़हबी युद्ध'' (जिहाद) की संकल्पना में इस बात पर ध्यान नहीं किया गया है कि वह रक्षात्मक अथवा आक्रामक है। इसका लक्ष्य तो अल्लाह की वाणी को बुलंद करना है और इस्लामी समाज की स्थापना करना तथा इस धरती पर जैसे भी हो अल्लाह का साम्राज्य स्थापित करना है। इन सभी के लिए आक्रामक युद्ध माध्यम होगा। इस मामले में यह शीर्षस्थ आदर्श पवित्र युद्ध है और इस पवित्र युद्ध को छेड़ना विधि सम्मत है।'' (पृ. २६३)।

10. बेदावी : (दी लाइट्‌स ऑफ रिवीलेशन, पृ. २५२)-''यहूदियों तािा ईसाइयों के साथ लड़ाई करो क्योंकि उन्होंने अपने मज़हब के उद्‌गम का उल्लंघन किया है और वे सच्चाई के मज़हब (इस्लाम) पर ईमान नहीं लाते हैं जिसने अन्य सभी मज़हबों का खण्डन किया है। उनके साथ अब तक लड़ाई करो जब तक वे समर्पण और विनम्रता से ज़ज़िया अदा नहीं करने लगें।''

11. अमीर ताहिर''इस्लाम के अनुसार सभी वयस्क पुरुषों के लिए, बशर्तें वे विकलांग व अशक्त न हों, यह आवश्यक है कि वे अन्य देशों को जीतने के लिए तैयार हो जाएं ताकि संसार के हर एक देश में इस्लाम का अनुसरण हो।....लेकिन जो इस्लामी मज़हबी युद्ध का अध्ययन करेंगे, वे इस बात का समझेंगे कि इस्लाम पूरे विश्व को क्यों जीतना चाहता है...... जो इस्लाम के बारे में कुछ नहीं जानते, वे यह तर्क देते हैं कि इस्लाम युद्ध के खिलाफ़ है। वे जो ऐसा कहते हैं, नासमझ हैं। इस्लाम के अनुसार, ''सभी इंकार करने वाले को जान से मार दो क्योंकि नहीं तो वे आप सबको जान से मार देंगे।'' क्या इसका मतलब है कि मुसलमान तब तक बैठे रहें जब तक इंकार करने वाले उन्हें नष्ट नहीं कर देते। इस्लाम का कहना है-''सभी गैर-मुसलमानों को तलवार से मौत के घाट उतार दो।' क्या इसका मतलब यह है कि तब तक बैठे रहो जब तक गैर-मुसलमान हम पर काबू नहीं पा लेते हैं। इस्लाम का कहना है कि'-अल्लाह की सेवा में उन सभी को जान से मार दो जो आपको जान से मारना चाहते हैं। क्या इसका मतलब यह है कि हमें दुश्मनों के सामने आत्मसमर्पण कर देना चाहिए। इस्लाम का कहना है-जो भी कुछ अच्छाई मोजूद है, उसका श्रेय तलवार और तलवार के भय से है। लोगों को तलवार के भय के बिना आज्ञाकारी नहीं बनायाजा सकता। तलवार जन्नत प्राप्ति की चाबी है और जन्नत के दरवाजे मज़हबी युद्ध करने वालों के लिए ही खुलते हैं। ऐसी कई सौ अन्य हदीसे हैं जिनका उपयोग करके मुसलमानों से कहा जाता है कि वे युद्ध को महत्व दें तथा युद्ध करें। क्या इन सभी का यह मतलब है कि इस्लाम एक ऐसा मज़हब है जो मनुष्य को युद्ध करने से रोकता है ? मैं उन सभी मूख्र लोगों पर थूकता हूँ जो इस प्रकार का दावा करते हैं।'' (होली टेरर पृ. २२६-२२७)।

12. इब्न-हिशाम-अल-सोहेली (अल-रब्द अल-अनाफ,पृत्र ५०-५१)-''अरब प्रायद्वीप में कोई दो मज़हब एक साथ नहीं रह सकते।''। इसीलिए सउदी अरब की सरकार अपने देश में किसी अन्य मज़हब को अपने धार्मिक कृत्य करने की आज्ञा नहीं देती है। वह इस्लाम कितना सहिष्णु और शान्तिपूर्ण मज़हब है।''

13. इब्न खालदुन-(१३३२-१४०६; इस्लाम का महान्‌ इतिहासकार, समाजशास्त्री तथा दार्शनिक)-''मुस्लिम समुदाय में पवित्र युद्ध एक मज़हबी फ़र्ज है क्योंकि इसका उद्‌ेश्य इसलाम को सार्वभौतिक बनाना है और ह व्यक्ति को समझा-बुझाकर अथवा बल प्रयाग से इस्लाम स्वीकार करवाना है। इसीलिए इस्लाम में शाही-सत्ता और खलीफ़ा (धार्मिक सत्ता) को एक साथ रखा गया है ताकि प्रभावी व्यक्ति दोनों को ही उपलब्ध शक्ति एक ही समय दे सके।'' (दी मुकदि्‌दमाह, खं. १, पृ. ४७३)।

14. ए. ए. इंजीनियर (रेशनल अप्रोच टू इस्लाम, पृ. २११) : ''इस्लाम में जिहादकी संकल्पना को मुसलमान तथा गैर-मुसलमान दोनों ही पर्याप्त रूप से नहीं समझ पाए हैं। वास्तव में ''इस्लामी जिहाद'' शब्दों का अनुवाद किसी भी भाषा में नहीं किया जा सकता है। लेकिन कुछ हद तक इसके भाव की व्याखया की जा सकती है। इसलिए किसी मुसलमान द्वारा व्यक्तिगत तौर पर अथवा सामूहिक तौर पर किया गया यह 'प्रयास' जिहाद है जिसमें गैर-मुसलमान देश में इस्लाम की अभिवृद्धि होती है और वह राजनीतिक, धार्मिक तथा आर्थिक तौरपर मुसलमान समुदाय के किसी व्यक्ति के लिए अथवा सामूहिक आधार पर लाभकर सिद्ध होता हो। इसका मुखय निशाना हमेशा गैर-मुसलमान और उनका देश होता है ताकि किसी भी सम्भव तरीके से इस्लाम के पक्ष में उनका हृदय परिवर्तन किया जा सके। लेकिन इसके संचालन का तरीका, स्थिति, ताकत तथा काय्रकर्ताओं के संसाधनों को देखते हुए अलग-अलग हो सकता है। यह मुखयतया स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय स्थितियों से नियंत्रित होता है।''

15. सैयद कामरान मिर्ज़ा : ''ऐतिहासिक रूप से जिहाद का अर्थ मज़हबी युद्ध है। १४०० वर्षों से मुसलमानों ने सदैव जिहाद का अर्थ इस्लामी मज़हबी युद्ध ही समझा है।.... इस्लाम का इतिहास देखें तो ८० प्रतिशत से अधिक अतिहास मज़हबी युद्धों (जिहाद) से भरा पड़ा है। प्रारम्भिक काल में अरब प्रायद्वीप में इस्लाम का विस्तार केवल मज़हबी युद्ध ही समझा है।.... इस्लाम का इतिहास देखें तो ८० प्रतिशत से अधिक इतिहास मज़हबी युद्धों (जिहाद) से भरा पड़ा है। प्रारम्भिक काल में अरब प्रायद्वीप में इस्लाम का विस्तार केवल मज़हबी युद्ध (जिहाद) से किया गया था।''
''कुरान के अधिकांश आदेशों में स्पष्ट रूप से इस्लाम में जिहाद को भौतिक संघर्ष की संज्ञा दी गई है, तथा इस्लामी तौर से इसे धरती पर अल्लाह की सत्ता स्थापित करने का साधन बताया गया है। इसी प्रकार हदीस और मुहम्मद साहब की जीवनियों से यह स्पष्ट है कि प्रारम्भिक काल में मुसलमान समुदाय ने कुरान के वचनों का शाब्दिक अर्थ 'धर्म युद्ध' लिया।'' (दी जिहाद जुगरनौट, पृ. ४८)।

16. अब्द-अल-कादिर अस सूफी अद-दर क़ावी ने अपनी किताब 'जिहाद ए ग्राउंड प्लान' में लिखा : ''हम संघर्षरत है और हमारा संघर्ष अभी शुरू हुआ हैं। हमारी पहली विजय विश्व की ऐसी भूमि के रूप में होगी जहाँ पूरी तरह इस्लाम का शासन होगा।...... इस्लाम पूरी धरती पर फैल रहा है। इस्लाम के विस्तार को यूरोप और अमेरिका में कोई रोक नहीं सकता।'' (जोन लाफ़िन, होली वार इस्लाम फाइट्‌स, पृ. २२)।
                                    
                           स्रोत : हिंदु राईटर फोरम
क्रमशः .............

एक १३ वर्ष के लडकी की भारत माँ के पुत्रो के लिए सन्देश !

हमारे देश कि १३ वर्षीय लडकी जो भारत माँ के पुत्रो को भारत माँ के रक्षा के लिए आह्वान कर रही है | कि ऐ जननी भारत माँ के पुत्रो जाग जाओ, रक्षा करो उन गद्दारों से जो वोट के लालच में धर्म, धरती और ईमान बेच रहे है |

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ऐसा ओजस्वी ललकार कि ऐसा शायद ही किसी ने सुना और देखा होगा|

Clip- 2 

भारत माँ के पुत्रों आप सभी को जरुर देखना चाहिए!


आप सभी लोगो से क्षमा चाहूँगा कि मै इधर बीच ब्लॉग पर नहीं आ पा रहा हू| इसका कारण है मेरा “परीक्षा” | मै परीक्षा बाद उसी जोश के साथ वापस आऊंगा |
धन्यबाद
जय भारत